जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, क्षेत्रीय अस्मिता और भाषाई पहचान की राजनीति फिर चर्चा में है। बंगाल से लेकर तमिलनाडु तक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बीच सांस्कृतिक विमर्श का नया दौर शुरू हो गया है — जिसमें एक ओर राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा की चिंता है, तो दूसरी ओर क्षेत्रीय गौरव और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का दावा।
हाल ही में एक बीजेपी कार्यकर्ता ने बताया कि कैसे 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर पार्टी की पदयात्रा योजना बंगाल में फेल हो गई। गर्मी के मौसम में और स्थानीय चुनावों के बीच गांधी के वेश में पदयात्रा कराने का दिल्ली का आदेश जमीन से कटे कार्यक्रम की मिसाल बन गया। असल वजह सिर्फ मौसम नहीं थी — बंगाल में गांधी को लेकर भावनाएं हमेशा मिश्रित रही हैं। उन्हें संत तो माना गया, लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रति उनके दृष्टिकोण ने बंगालियों के दिल में हमेशा एक कसक छोड़ी।
राष्ट्रीय पार्टियों के सामने चुनौती यह है कि वे सिर्फ अपनी विचारधारा या केंद्रीय योजनाओं को नहीं, बल्कि स्थानीय संवेदनशीलताओं को भी समझें। बीजेपी पर अक्सर “हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान” वाली छवि थोप दी जाती है — खासकर उन राज्यों में, जहां वह सत्ता में नहीं है। इस छवि को और धार देने का काम उस वामपंथी धारा ने किया है, जिसका अब खुद का जनाधार कम है लेकिन विपक्षी INDIA गठबंधन में वैचारिक पकड़ मजबूत है।
भाषा बनी सियासत का औजार
भाषाई मुद्दे आसानी से भावनाएं भड़का सकते हैं। कभी मुंबई में मराठी के नाम पर, कभी दक्षिण में हिंदी विरोध की राजनीति — ये सब पुराने तरीकों से कम समय में भारी सुर्खियां बटोरने का जरिया बन गए हैं। राष्ट्रीय पार्टियां इन टकरावों में खुलकर पक्ष नहीं ले सकतीं, और अक्सर चुप रह जाती हैं। इसी चुप्पी का फायदा उठाकर भाषा के नाम पर अतिवादी ज़मीन हासिल कर लेते हैं।
तमिल अस्मिता और खुदमुख्तारी की मिसाल
तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति ने भाषा से आगे जाकर पहचान और इतिहास को केंद्र में रखा है। कीलाड़ी में हुई पुरातात्विक खुदाई को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच ठनी रही, लेकिन इसका असर विकास के एजेंडे पर नहीं पड़ा। तमिल अस्मिता की राजनीति ने राज्य को राष्ट्रीय पार्टियों से लगभग अप्रभावित रखा है।
बंगाल में ममता बनर्जी की नई पिच
पिछले कुछ हफ्तों से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बीजेपी पर यह आरोप लगा रही हैं कि वह बंगाली बोलने वालों को ‘बांग्लादेशी’ बताकर निशाना बना रही है। उन्होंने इसे ‘गुज्जू जोड़ी’ की साजिश करार देते हुए कहा कि बीजेपी बंगालियों को मतदाता सूची से हटाने और देश से बाहर करने की योजना बना रही है।
इसके जवाब में तृणमूल कांग्रेस ने धमकी दी है कि वह राज्य में मतदाता सूची का पुनरीक्षण नहीं होने देगी और संसद में सिर्फ बंगाली में ही बोलेगी। ममता ने साफ कर दिया है कि अब से लेकर चुनाव तक उनकी पार्टी का नारा बंगाली अस्मिता की रक्षा होगा।
भाषा के नाम पर असली संकट से ध्यान भटकाना?
हालांकि ममता का आरोप अतिरंजित लगता है, लेकिन यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठ की समस्या बड़ी चिंता का विषय बनी है। कई बार भाषा के आधार पर अवैध प्रवासियों की पहचान की जाती है, जिससे कुछ असली भारतीय नागरिक भी गलत पकड़ में आ जाते हैं। मगर ऐसे मामले संख्या में बेहद कम हैं — समस्या की तुलना में ये ‘एक बूँद समुद्र’ जैसी हैं।
पिछले एक साल में लगभग एक लाख बांग्लादेशियों को भारत से ‘पुश बैक’ किया गया है। लेकिन ढाका की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।
विश्लेषकों के मुताबिक, ममता बनर्जी भाषाई अस्मिता की आड़ में राज्य की जनसंख्या संरचना में आए बदलाव को स्थायी बनाने की कोशिश कर रही हैं। अगर यूरोप जैसी ‘खुले दरवाज़े’ वाली नीतियों को भारत ने भी अपनाया, तो न केवल समाजिक असंतुलन बढ़ेगा बल्कि बंगाल की सांस्कृतिक पहचान — दुर्गा पूजा, टैगोर, सत्यजीत रे — भी खतरे में पड़ सकती है।
राष्ट्रीय दलों के लिए चुनौती दोहरी है — उन्हें न केवल अपने राष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ाना है, बल्कि उन राज्यों की सांस्कृतिक परतों को भी समझना है जहां क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा, राजनीति की धुरी बन चुके हैं। वहीं क्षेत्रीय दलों को भी यह तय करना होगा कि वे अस्मिता की राजनीति के नाम पर भारत की एकता और सुरक्षा से खिलवाड़ तो नहीं कर रहे। चुनाव आते ही जब भाषा, संस्कृति और पहचान के नाम पर सियासी रंग गाढ़े होने लगें — तब सवाल सिर्फ वोट का नहीं, देश के भविष्य का भी बन जाता है।